चिंतन का विवश करता है 65 वर्ष पुराना लोहिया का पत्र 

राममनोहर लोहिया

-क्रिकेट, ब्रिटिश पत्रकारिता और निष्पक्षता पर कैसे चली थी लोहिया की लेखनी 

-पत्रकारिता का वर्तमान और अतीत, पढ़िए और अंतर समझिए 

-हुकमदेव नारायण यादव ने कहा, नसीहत देता है लोहिया का पत्र

महेश कुमार वैद्य, रेवाड़ी:

आज हम आपको 10 जुलाई 1959 को राममनोहर लोहिया का लिखा हुआ वह पत्र पढ़वाने जा रहे हैं, जो उन्होंने उस समय मांचेस्टर गार्डियन के संपादक को भेजा था। यह पत्र आज भी चिंतन को विवश करता है। लगभग 65 वर्ष पुराना यह पत्र पत्रकारिता के अतीत और वर्तमान का अंतर भी समझाता है और राम मनोहर लोहिया के महान दर्शन से भी साक्षात कराता है। हुकमदेव कहते हैं कि यह अहम नहीं है कि उस समय किस पार्टी की सरकार रही होगी और उस समय की राजनीति कैसी रही होगी, लेकिन चीजों को पूर्ण परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। उस समय कांग्रेस पार्टी का और पंडित जवाहरलाल नेहरू का प्रभाव था। अंध भक्तों की और अंध समर्थकों की कमी नहीं थी। जिसके कारण विरोध पक्ष के राष्ट्रीय स्तर के महान नेताओं को भी साधन के अभाव में और कठिन परिस्थितियों में अपने संघर्ष को जारी रखना कितना कठिन रहा होगा। वैसी स्थिति में भी राष्ट्रीय हित के मामलों को निर्भीकता पूर्वक सार्वजनिक रूप से रखना मामूली काम नहीं था, लेकिन यह काम किया गया। केवल सरकार का विरोध करना ही नहीं, बल्कि समग्रता में राष्ट्र के हित में समाज के हित में और व्यक्ति के हित में तथा विश्व हित में तत्कालीन एवं दीर्घकालीन समस्याओं के समाधान के लिए जनता में चेतना पैदा करना तब के विपक्ष के लिए कितना कठिन कार्य रहा होगा, यह विचारणीय प्रश्न है। फिर भी डॉ. राम मनोहर लोहिया राष्ट्रीय हित के लिए और राष्ट्रीय स्वाभिमान के लिए तथा राष्ट्रीय संस्कृति के लिए बहुआयामी विषयों को सार्वजनिक रूप से लोगों के सामने रखते थे। लोक चेतना पैदा करते थे। खेल के मार्फत भी राष्ट्रीय चेतना और राष्ट्रीय एकता के साथ राष्ट्रीय स्वाभिमान को विश्व स्तर पर कैसे स्थापित किया जा सकता है, इस संबंध में निर्भीकता पूर्वक आवाज उठाते थे। पूर्व केंद्रीय मंत्री व पदमभूषण पुरस्कार से सम्मानित हुकमदेव नारायण यादव ने राम मनोहर लोहिया के खेल से संबंधित इस लेख पर चिंतन करने का अनुरोध किया है। उनका मानना है कि युवा वर्ग में इस तरह के लेख न केवल राष्ट्रीय खेलों के प्रति श्रद्धा बढ़ाऐंगे, बल्कि अंग्रेजी मानसिकता और अंग्रेजी विचार से राष्ट्र को मुक्ति दिलाने में भी मददगार होंगे। अब आप 5 नवंबर 2024 को हुकमदेव नारायण यादव की ओर से प्रमुख लोगों को भेजे गए राम मनोहर लोहिया के पत्र को पढिए। इस पत्र का शीर्षक था-

क्रिकेट, ब्रिटिश पत्रकारिता और निष्पक्षता और उप शीर्षक था-संपादक के नाम पत्र, जिसे मांचेस्टर गार्जियन ने प्रकाशित नहीं किया। 

महोदय, 

आपकी समाचार पत्रिका में कई बार कहा गया कि मैं क्रिकेट, ब्रिटिश प्रतिमाओं और अंग्रेजी भाषा को इसलिए नापसंद करता हूं क्योंकि ये सब ब्रिटिश हैं। मैंने भी कई बार अपनी स्थिति को साफ करना चाहा लेकिन मैं ऐसे मौके की इंतजार में था जब मेरी बात अधिक सहानुभूति से सुनी जा सके। यह मौका अब आया है। मैं नहीं जानता कि अंग्रेज़ी जानने वाले अधिकांश भारतीयों ने भारतीय क्रिकेट के प्रदर्शन के खिलाफ ब्रिटिश पत्रों की तीखी आलोचना को कैसे लिया है लेकिन कम से कम एक आदमी तो ऐसा है जो मानता है कि टेस्ट के तीन दिन भारतीय क्रिकेट के लिए बहुत ज्यादा हैं और भारतीय क्रिकेट की टीम तीन दिन में भी उसी तरह चाट ली जाएगी जिस तरह आजकल 5 दिन में चाट ली जाती है और उचित बाधा की व्यवस्था से भारतीयों को जीतने का न सही, मैच बराबर करने का मौका मिलेगा। टेस्ट की अवधि दो दिन करने पर भारतीय क्रिकेट को कम से कम मैच बराबर करने का अवसर मिलेगा।

मैं अपने देश में क्रिकेट को सरकारी प्रोत्साहन देने की आलोचना निम्नलिखित कारणों से करता रहा हूं: पहला, यह सामंती खेल है। दूसरा, यह अंतर्राष्ट्रीय खेल नहीं है जो ओलंपिक जैसे अंतर्राष्ट्रीय खेलों के अवसरों के लिए महत्वपूर्ण और मान्यता प्राप्त हैं। तीसरे, यह खेल आम जनता के शरीर को स्वस्थ नहीं बनाते जैसा कि जिम्नास्टिक्स, फुटबाल आदि खेल बनाते हैं। अभी तक मेरी बात को न तो इंग्लैंड में सुना गया है. और न अंग्रेजी जानने वाले भारतीयों में क्योंकि क्रिकेट को किसी रहस्यमय ढंग से इंग्लैंड और भारत के बीच प्रेम संबंध मान लिया गया है।

इंग्लैंड में अब भी एक फुर्सत वाला वर्ग है। न्यूजीलैंड, वेस्टइंडीज और आस्ट्रेलिया में कुलीन वर्ग नहीं होगा लेकिन उनकी विस्तृत कृषि, चरागाहों और पर्यटन की अर्थव्यवस्था ने वहां ऐसा वर्ग तैयार किया है जो क्रिकेट जैसे फुर्सती खेल को खेल सकते हैं। भारत ने उन सामंतों तथा भू-स्वामी कुलीन वर्गों को खत्म करने का निश्चय किया जो ब्रिटिश राज में पलें। उसकी अर्थव्यवस्था आने वाले लंबे समय तक विस्तारशील नहीं बनेगी। अतः उसके खेल होने चाहिए हाकी, फुटबाल, टैनिस और सबसे अधिक जिम्नास्टिक जो स्त्री-पुरुषों को अपने-अपने व्यवसायों में काम करते हुए इन खेलों का अभ्यास करने का मौका दें, कम से कम गैर-पेशेवर रूपों में। मेरी जानकारी में गैर-पेशेवर फुटबाल खिलाड़ी अब बहुत कम रह गए हैं लेकिन उससे मेरे तर्क का आधार खत्म नहीं होता। वैसे भी फुटवाल क्रिकेट की तुलना में ब्रिटिश नागरिकों में अधिक लोकप्रिय है, एक जनता का खेल है और दूसरा खास वर्गों का।

इसी प्रकार मुझे भाषा के मामले में भी गलत चित्रित किया गया है। वास्तव में मैं अंग्रेजी भाषा को उतना ही पसंद करता हूं जितना कि जर्मन को और अपनी भाषा को। लेकिन सवाल पसंद-नापसंद का नहीं है। सवाल दरअसल यह है कि क्या भाषा को एक छोटे से वर्ग द्वारा विशाल जनता पर वर्चस्व का औजार बनाया जाना चाहिए? मैं अंग्रेजी का विरोध इसलिए नहीं करता हूं कि यह विदेशी भाषा है बल्कि इसलिए कि यह भारत के वर्तमान संदर्भ में सामंती भाषा है। मैं संस्कृत का भी उतना ही विरोधी हूं जब कभी भारत में अंग्रेजी के स्थान पर किसी और भाषा को अपनाने की बात की जाती है।

मैं नहीं जानता कि इंग्लैंड के लोग इस बात को जानते हैं या नहीं कि भारत में उनकी भाषा का इस्तेमाल किस प्रकार हो रहा है। यहां के वर्तमान शासक वर्गों की पहचान तीन बातों से की जा सकती है: ऊंची जाति, धन और अंग्रेजी भाषा, और इनमें से कोई दो जिसके पास होते हैं उसे देश के शासक वर्गों में गिना जाता है। इस तरह के लोगों की संख्या मोटे तौर पर 30 लाख के करीब है। ये तीस लाख देशी भारतीय चालीस करोड़ लोगों की छाती पर मजबूती से बैठे हैं और इनके पास दो हथियार हैं. जिनकी शक्ति का लोग अंदाजा नहीं लगा पाते। एक हथियार है बंदूक और दूसरा अंग्रेजी।

सामंती अल्पसंख्यक वर्ग ने बहुसंख्यक जनता में हीनता की भावना पैदा कर उन पर राज किया है और भारत के शासक वर्ग भी जनता में हीन भावना भरते हैं क्योंकि जनता अंग्रेजी नहीं बोल सकती। अंग्रेजों की रुचि शायद यह जानने में भी होनी चाहिए कि अंग्रेजी का हमारे देश में इस्तेमाल 50 प्रतिशत से अधिक बच्चों को परीक्षा में फेल करने के लिए किया जाता है। इस साल 5 लाख से ज्यादा ही बच्चे मैट्रिक की परीक्षा में फेल हुए हैं, जितने पास हुए उनसे कुछ ज्यादा। इनमें से अधिकांश के फेल होने का कारण है अंग्रेजी की अनिवार्य शिक्षा। भारत के शासक वर्ग अंग्रेजी को अनिवार्य इसलिए बनाए रख रहे हैं क्योंकि वे ऊंची शिक्षा को अपनी चंडाल चौकड़ी तक सीमित रखना चाहते हैं और नहीं चाहते कि साधारण जनता के लोग भी जिंदगी में अच्छी चीजों का दावा करें। मैं और भी बहुत कुछ कह सकता हूं, लेकिन यहीं रुकूंगा। अगर ब्रिटिश मूर्तियों, या किन्हीं भी मूर्तियों के बारे में जानना चाहें तो मैं आपको ऐसी पत्रिकाएं भेज सकता हूं जिनमें ये विचार छपे हैं। कृपया मेरा विश्वास करें। मैं उतना ही ब्रिटिश-विरोधी हूं जितना वह आदमी जिसे कुछ अंग्रेजों ने मजाक से या शायद सच्चे दिल से भारत का अंतिम ब्रिटिश वायसराय कहा है। मैं और भी बहुत कुछ कह सकता हूं, लेकिन यहीं रुकूंगा। अगर ब्रिटिश मूर्तियों, या किन्हीं भी मूर्तियों के बारे में जानना चाहें तो मैं आपको ऐसी पत्रिकाएं भेज सकता हूं जिनमें ये विचार छपे हैं। कृपया मेरा विश्वास करें। मैं उतना ही ब्रिटिश-विरोधी हूं जितना वह आदमी जिसे कुछ अंग्रेजों ने मजाक से या शायद सच्चे दिल से भारत का अंतिम ब्रिटिश वाइसराय कहा है। मैं बदलते समय कुछ ज्यादा करीब हूं, बस इतनी ही बात है। आने वाले वर्षों में भारत और इंग्लैंड के संबंध क्रिकेट या अंग्रेजी भाषा के संयोगों से नहीं, विचारों, संस्थाओं और व्यापार की मजबूत वास्तविकताओं से बनेंगे। मैं उम्मीद करता हूं कि आगे भारत और इंग्लैंड के बीच विचारों और संस्थाओं के बेहतर आदान-प्रदान की स्थितियां बनेंगी।

: राममनोहर लोहिया हैदराबाद; 10 जुलाई, 1959

अब आप वह पत्र पढ़िए जो मांचेस्टर गार्डियन ने लोहिया को भेजा था-

मांचेस्टर गार्डियन का पत्र

प्रिय डॉ. लोहिया,

आपके 10 जुलाई के पत्र के लिए धन्यवाद। पत्र बहुत रोचक है और इसकी कुछ बातों से हम आपसे सहमत भी हैं। हमारा अपना विचार है कि क्रिकेट खेलने या न खेलने का तर्क इस बात पर निर्भर हो कि लोग भारतीय तथा अंग्रेज इसे खेलने और देखने में मजा लेते हैं या नहीं। इस आधार पर हम आपके इस सुझाव को स्वीकार नहीं करेंगे कि इंग्लैंड में विशेषकर क्रिकेट उच्च वर्गों का खेल है। तथापि, हम यह समझ सकते हैं कि व्यावहारिक कठिनाइयां, जैसा कि आपने कहा-भारत में इसके प्रचार में अभी बाधक हो सकती हैं। प्रसंगवश, हमने भारतीय क्रिकेट टीम की खबरें निष्पक्षता से छापने का भरसक प्रयत्न किया है।

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